भाषा एवं साहित्य >> गुजरात : लोक संस्कृति और साहित्य गुजरात : लोक संस्कृति और साहित्यहसु याज्ञिक
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गुजरात देश की संस्कृति और साहित्य....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गुजरात प्रदेश भारत का अत्यंत महत्वपूर्ण राज्य है। कच्छ, सौराष्ट्र और
गुजरात उसके प्रादेशिक सांस्कृतिक अंग हैं। इनकी लोक संस्कृति और साहित्य
का अनुबन्ध राजस्थान, सिंध और पंजाब, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के साथ
है। विशाल सागर तट वाले इस राज्य में इतिहास युग के आरम्भ होने से पूर्व
ही अनेक विदेशी जातियाँ थल और समुद्र मार्ग से आकर स्थायी रूप से बसी हुई
हैं। इसके उपरांत गुजरात में अट्ठाइस आदिवासी जातियां हैं। जन-समाज के ऐसे
वैविध्य के कारण इस प्रदेश को भाँति-भाँति की लोक संस्कृतियों का लाभ मिला
है। गुजरातः लोक संस्कृति और साहित्य शीर्षक इस पुस्तक में इस प्रदेश और
इसके निवास, पुराकल्प और पुराकथा, धर्म और लोक विश्वास, परंपरा और
रीति-रिवाज, उत्सव और मेले, विविध भाषाएं और उनकी बोलियों की
श्रुत-परंपरा, लोक संगीत और वाद्य, लोक रंजक कलाओं और कौशलौं का परिचय
दिया गया है।
लेखक हसु यागिक उपन्यासकार, कहानीकार, संगीतज्ञ, मध्यकालीन कथा साहित्य और लोक परंपरा के अध्येता हैं। वे बाइस वर्ष गुजराती भाषा के अध्यापक और चौदह वर्ष गुजरात की भाषा अकादमी के सचिव रह कर सेवा निवृत हुए हैं। उनके बीस उपन्यास, सात कहानी संग्रह, पांच मध्यकालीन कथा साहित्य, सात लोक साहित्य और पांच संगीत विषयक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अर्ली मॉडर्न आर्यन लेंग्वेजेज की पेरिस, शिएटल (अमेरिका) और वेनिस में आयोजित वर्ल्ड कांफ्रेंसों में गुजराती की श्रुत परंपरा में कृष्ण चरित, राम कथा और सरजू गान विषयक जिन शोध-पत्रों का उन्होंने पाठ किया है, वे प्रकाशित हो चुके हैं।
अनुवादक जगदीश चंद्रिकेश हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखक, संपादक, अनुवादक हैं। इतिहास एवं कला संस्कृति में इनकी गहरी रुचि है। इनकी कई कृतियां (लिखित/अनूदित) प्रकाशित और प्रशंसित हैं।
लेखक हसु यागिक उपन्यासकार, कहानीकार, संगीतज्ञ, मध्यकालीन कथा साहित्य और लोक परंपरा के अध्येता हैं। वे बाइस वर्ष गुजराती भाषा के अध्यापक और चौदह वर्ष गुजरात की भाषा अकादमी के सचिव रह कर सेवा निवृत हुए हैं। उनके बीस उपन्यास, सात कहानी संग्रह, पांच मध्यकालीन कथा साहित्य, सात लोक साहित्य और पांच संगीत विषयक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अर्ली मॉडर्न आर्यन लेंग्वेजेज की पेरिस, शिएटल (अमेरिका) और वेनिस में आयोजित वर्ल्ड कांफ्रेंसों में गुजराती की श्रुत परंपरा में कृष्ण चरित, राम कथा और सरजू गान विषयक जिन शोध-पत्रों का उन्होंने पाठ किया है, वे प्रकाशित हो चुके हैं।
अनुवादक जगदीश चंद्रिकेश हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखक, संपादक, अनुवादक हैं। इतिहास एवं कला संस्कृति में इनकी गहरी रुचि है। इनकी कई कृतियां (लिखित/अनूदित) प्रकाशित और प्रशंसित हैं।
आभार
चित्र आदि के लिए धार्मिकलाल पंड्या, श्री जयमल्लभाई परमार के खजाने से
लिए गए फोटो के लिए श्री रजुल देव, आदिवासी फोटो के लिए श्री अमूल खोडीदास
परमार और तरणेतर की छत्री के फोटो के लिए चित्रकार-लेखक श्री रजनी व्यास
का आभारी हूं। संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली, सुश्री यूटा जैन न्यूबोर,
क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली तथा श्री प्रशांत रवि का आभारी हूं।
हसु याज्ञिक
1
प्रदेश और लोग
किसी भाषायी क्षेत्र की लोक संस्कृति का परिचय प्राप्त करना हो तो उस भाषा
या भाषाओं के बोलने वालों के आवासीय क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, उस
क्षेत्र में रहने वाली विविध जातीयों के इतिहास और परंपराओं को जानना
जरूरी है। लोक संस्कृति स्थानीय भाषा-भाषियों के भौगोलिक क्षेत्र की संपदा
होती है, जो उस क्षेत्र के लोगों की परंपराओं में प्रवाहमान रहती है।
विश्व के किसी भी राष्ट्र या प्रदेश के इतिहास को देखें तो मालूम होगा कि
उसके इतिहास को उसके भूगोल ने ही रचा है। विविध भाषाओं और उनकी विभिन्न
जातियों के आवास वाले क्षेत्र एक राष्ट्र या राज्य की भांति अलग व
स्वतंत्र होते हैं। उन पर जब-तब पड़ोसी क्षेत्रों या राष्ट्रों के आक्रमण
होते रहते हैं और जब ये आक्रमण रुक जाते हैं तो उसके बाद उन दोनों के बीच
परस्पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान आरंभ हो जाता है। भाषाओं के साथ-साथ
सामाजिक, आर्थिक एवं कला-कौशल के आदान-प्रदान से जातिगत या क्षेत्रगत
परंपराओं से अलग एक सामाजिक-मिश्रित और संयोजित सभ्यता एवं संस्कृति का
जन्म होता है। इसके बाद उन पड़ोसी राष्ट्रों और उनकी विविध जातियों की एक
व्यापक एवं विशिष्ट क्षेत्रीय संस्कृति सामने आती है। दोनों संस्कृतियां
एकाकार होकर एक वृहत छत्र के नीचे आ जाती हैं।
जो प्रदेश विभिन्न पड़ोसी राष्ट्रों के मध्य नहीं होते, उनका अलग ही एक वृहत भौगोलिक क्षेत्र होता है, और वे एक स्वतंत्र इकाई होते हैं, उनको पड़ोस के भिन्न जन-जीवन और उनकी सभ्यता, संस्कृति से विनिमय का लाभ नहीं मिलता। लेकिन प्रायः ऐसा नहीं होता। अमेरिका, यूरोप, मध्यपूर्व, अफ्रीका, भारत, चीन, जापान, रूस आदि के भू-क्षेत्र अत्यंत विशाल हैं, जिनमें प्रगैतिहासिक काल से लेकर उन्नीसवीं-बीसवीं सदी तक, एक साथ अनेक जातियां बसी हुई पाई गई हैं। आक्रमण और स्थानांतरण का सिलसिला बराबर चलता रहा है, जिससे एक तरह से संकुल और मिश्रित संस्कृति बनी है और जिसका विकास होता रहा है। इसके साथ ही भिन्न जातियों की भिन्न भाषाओं और धर्मों के कारण भी आपसी संघर्ष हुए हैं, परिणामस्वरूप जो इक्कीसवीं सदी में हल की जा सकें ऐसी समस्याएं भी जन्मी हैं।
गुजरात प्रदेश को केन्द्र में रखकर इस विषय पर विचार करें तो गुजरात अखंड भारत का एक भू-भौगोलिक क्षेत्र है जहां इतिहास के आरंभ होने के पूर्व से ही लोग निवास करते आ रहे हैं, यह सिद्ध हो चुका है, इस प्रदेश के पश्चिम में विशाल सागर तट है। इस तट पर आकर जो लोग बसे उनके आदिपुरुष अफ्रीका के पूर्वी किनारे से आए होंगे, ऐसा अनुमान किया जाता है। इस अनुमान का आधार यह है कि जब हिमालय का सृजन हुआ, उस दौरान भारत के पश्चिमी भाग से अफ्रीका का भू-खंड अलग हो गया। इस भौगोलिक नवसृजन की प्रक्रिया को ध्यान में रखा जाए तो इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि आदिमानव समूह, जो अफ्रीका में बसता था वही वर्तमान सौराष्ट्र कहे जाने वाले भू-भाग में भी बसा हुआ था। नक्शे को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों भू-खंड एक दूसरे से अलग हुए हैं और उनके बीच का भाग अरब सागर बना है। विश्व में सिंहों की आबादी गुजरात के सौराष्ट्र स्थित गिर के जंगल और अफ्रीका के जंगल-केवल इन दो जगहों में ही पाई जाती है। इन दोनों—अफ्रीका के सिंह और गिरि के भारतीय सिंह में जो अंतर है, वह पर्यावरण की भिन्नता के साथ सामंजस्य बैठाने के कारण है आया है।
सिंहों पर अध्ययन करनेवाले प्राणि वैज्ञानिकों का मानना है कि एशियन लायन और अफ्रीकन लायन का विकास किसी एक ही मूल से हुआ है। इस तरह गुजरात का इतिहास, उसकी भूमि और उस पर लोगों की बनावट अत्यंत प्राचीन है, और यह हिमालय के सृजन की भौगोलिक प्रक्रिया से पहले की है।
इसके बाद पाषाण युग के प्रगैतिहासिक काल के ताम्र व कांस्य युग तक के कालखंड तथा ईसा पूर्व 322 से सन् 1304 तक की समयावधि के कालखंड हैं। इन कालखंडों में यहाँ अनेक जातियों का आगमन हुआ। वे यहाँ आईं और आकर बस गईं। नृवंश-शास्त्रियों की खोजों के अनुसार सत्तर से बाइस लाख वर्ष पहले गुजरात में जो लोग रहते थे, वे नीग्रो या निग्रिटो जाति के थे। इसका प्रमाण यह है कि उनके अस्थि-पिंजर हमें सौराष्ट्र क्षेत्र में मिले हैं, जिनके सिर लंबे, कद साधारण, कपाल उभरा हुआ और भौहें तथा होंठ लटके हुए हैं।
इसके बाद पौराणिक साहित्य तथा उसके पहले के वेदकालीन साहित्य में गुजरात-सौराष्ट्र के भू-प्रदेश और उस पर रहनेवालों के अनेक उल्लेख मिलते हैं। ऐतिहासिक युग के आरंभ के साथ ही विविध जातियों के आगमन और यहां बस जाने का भी इतिहास भी मिलता है। इस प्रकार गुजरात और उसके निवासियों का इतिहास अत्यंत प्राचीन और जीवंत है, जो पृथ्वी के पटल पर हिमालय जैसे भू-भौगोलिक परिवर्तन से पहले ही आरंभ हो चुका था।
वर्तमान गुजरात भारतीय उपमाहाद्वीप का पश्चिमोत्तर प्रदेश है, जो 20.1 डिग्री उत्तर और 24.7 डिग्री उत्तर अक्षांश तथा 68.4 डिग्री पूर्व और 74.4 डिग्री पूर्व रेखांश के बीच स्थित है। कुल 4 अंश और 14 रेखांश के बीच पृथ्वी पर फैले इस प्रदेश का विस्तार 1,87,091 वर्ग किलोमीटर है। दीव और दमण जैसे केंद्र शासित क्षेत्र भी इसी के अंतर्गत आते हैं, जो लोक संस्कृति के संदर्भ में गुजरात से ही संबद्ध हैं।
इस प्रदेश के उत्तर में मारवाड़-राजस्थान, पूर्व में मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र का खानदेश क्षेत्र है, दक्षिण में महाराष्ट्र के नासिक तथा कोंकण जिलों की सीमाओं तक इसका विस्तार है। पश्चिम की ओर अरब सागर है तथा उत्तर पश्चिम में सिंध प्रदेश है, जिसे देश के विभाजन के समय पाकिस्तान को दिए जाने से अब उसे पाकिस्तान के एक प्रांत के रूप में जाना जाता है।
किसी भी प्रदेश में बोली जाने वाली भाषा या भाषाएं तथा उनकी बोलियां जो लिखित या श्रुत परंपरा में होती हैं। गुजरात प्रदेश को कच्छ, सौराष्ट्र, मध्य गुजरात, उत्तर गुजरात और दक्षिण गुजरात जैसे मुख्य भौगोलिक क्षेत्रों में बांटा जाए तो कच्छ का सिंध के साथ, उत्तर गुजरात का मारवाड़-राजस्थान के साथ और दक्षिण गुजरात का महाराष्ट्र के साथ संबंध है। पंचमहाल का मध्य प्रदेश की सीमा के साथ संबंध है। गुजरात की चारों सीमाओं में से तीन सीमाओं का संबंध मारवाड़-राजस्थान के साथ, सिंध, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के साथ है। इसलिए इसके जो सीमांत क्षेत्र हैं, उनमें बोली जाने वाली भाषाएं, उनके साहित्य और बोलियों को लोक साहित्य, उत्सव, पर्व और कला-कौशल आदि का पड़ोसी राज्यों की भाषा, साहित्य, संस्कृति आदि के साथ निकट संबंध है। कच्छ की अनेक कथाएं सिंध-पंजाब की कथाओं से सीधा संबंध रखती हैं। यो कथाएं एक जैसी ही नहीं, बल्कि कहा जाए तो एक ही हैं। कच्छ के शाह अब्दुल लतीप शाह(सन् 1689-1752) द्वारा रचित जो शाह-जो-रिसालो है, उसकी जो परंपरा कच्छ में है, वही सिंध-पाकिस्तान में है। आज के हरियाणा और पंजाब में भी वही कथाएं हैं, जो कच्छ और सिंध-पंजाब में हैं। कच्छ के पश्चिमोत्तर क्षेत्र की जो कथाएं और गीत हैं, उनका सीधा संबंध मारवाड़-राजस्थान के साथ है।
मीरा जितनी मेवाड़ की हैं उतनी है गुजरात की हैं। भरुच के कायस्थ कवि गणपति द्वारा सन् 1518 में रचित माधवानल-कामकंदला दोग्धक प्रबंध राजस्थान के प्रेमाख्यान पर आधारित माना जाता है। गुजरात प्रदेश की भाषा का जो ‘गुजराती’ नाम और उसका एक पृथक स्वरूप निर्धारित हुआ है, उससे पहले इस भाषा को तेस्सीतोरी ने ओल्ड वेस्टर्न राजस्थानी और उमाशंकर जोशी ने मारु गुर्जर नाम दिया था। अनेक भाट, चारण, बारोट ही नहीं, राजपूत और रबारी भी गुजरात-सौराष्ट्र, मारवाण-राजस्थान के प्रवास, निवास, व्यवसाय, अध्यवसाय द्वारा तथा अन्य अनेक प्रकार और अनेक निमित्त से गुजरात के साथ जुड़े हुए थे और आज भी जुड़े हुए हैं। गुजरात के साबरकांठा की ईडरिया मेवाड़ा ब्राह्मणों की जाति, उत्तर गुजरात के चौधरी, खेड़ब्रह्मा के आदिवासी माने जाने वाले भील, गरासिया आदि के घरेलू बोल-चाल के शब्द, लग्न आदि की कितनी ही रीति-रिवाज़ों, उनके गीतों और कथाओं का संबंध राजस्थान के साथ है।
रामदेव पीर की जो पाट उपासना और रूपांदे-मालदे की पूजन विधि (रेल) राजस्थान में है, वही गुजरात-सौराष्ट्र की अनेक जातियों में है। इनमें केवल उपासना पद्धति ही समान हो, इतना ही नहीं, संत वाणी व भजनों की कितनी ही पंक्तियाँ व कड़ियां भी एक समान हैं। मारवाड़-राजस्थान के भाट-चारण गत सदी तक कच्छ में स्थित ब्रजभाषा की पाठशाला में डिंगल-पिंगल का अध्ययन करने आते थे। इनमें से कितने ही व्यवसाय के लिए इन दोनों प्रदेशों में आते-जाते रहते थे, कितने ही स्थायी रूप से बस जाते थे। सौराष्ट्र के राज-परिवार के ब्याह-शादी संबंध जोधपुरी बीकानेर के राज-परिवारों के साथ रहते थे। गुजरात के बडारण, शास्त्री, गोर राजस्थान में जाकर बस जाते थे, उसी प्रकार वहां से आकर लोग गुजरात में बस जाते थे। इस प्रकार इस सदी का विशेषतः राजपूत, चारण और रबारियों के माध्यम से गुजरात की लोक परंपरा में राजस्थान, और राजस्थान की लोक परंपरा में गुजरात देखने को मिलता है।
ऐसा ही मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के साथ है। कुकणा बोली, डांगी आदि की अनेक कथाओं-गीतों में कहीं एक रूपता तो कहीं समानता देखने को मिलती है। गुजरात का ऐसा संबंध मात्र राजस्थान-मारवाड़, मालवा-उज्जैन और महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है, और भी व्यापक है। लोक संस्कृति का अत्यंत समर्थ और वाचिक अंग लोक साहित्य है। लग्न गीत जैसे लोक साहित्य के अंतर्गत लोगों ने संस्कार गीत, विविध रंजक और बोधपरक लोक कथाएं सही मायनों में सदियों से रची हैं। ऐसी अनेक प्रेम कथाएं, वीर गाथाएं, रामायण, महाभारत आदि की श्रुत परंपरा की कथाएं तथा उनपर आधारित लोक गीत है जो भारत भर में प्रचलित है।
इनका साम्यमूलक अध्ययन किया जाए तो ज्ञात हो सकता है कि गुजरात की ये परंपराएं नेपाल और उड़ीसा तक गई हैं और बंगाल, बिहार की परंपराएं गुजरात में आई हैं। राजपरिवारों के देशव्यापी शादी-विवाह संबंध, विविध पंथ के साधु-संतों का देशाटन, धार्मिक यात्राओं के अंतर्गत चारों धामों का पारस्परिक संबंध, सार्थवाहों के दल, सैनिकों के स्थानांतरण-इन सब कारणों से ‘विविधता में एकता’ की जिस समय कोई विशेष संप्रज्ञता नहीं थी, उस युग में भी भारत के इन विविध राज्यों की प्रजा एक थी। उसकी लोक संपदा एक थी। लिखित परंपरा में नरसिंह मेहता के किसी भी पद की अंतिम पंक्ति का यह वाक्य—‘नरसैंया नो स्वामी’ दूसरे प्रदेश में जाकर—‘नरसैंया का स्वामी’ या ‘नरसैया चा स्वामी’ में परिवर्तित हो, सही अर्थों में ‘भारतीय’ बन जाता है। भाषाचूर्णी भी काव्य का एक प्रकार था, जिसमें किसी एक कवि के एक ही काव्य की चौदह पंक्तियों में चौदह भारतीय भाषाओं का प्रयोग होता था। गुजरात के कवि दयाराम तक यह परंपरा रही। माधवानल-कामकंदला, ढोला-मारू, सदेवंत-सावलिंगा, नंदबत्तीसी आदि ऐसी अनेक कथाएं हैं, जो गुजरात, राजस्थान, मारवाड़, मालवा, महाराष्ट्र में मिलेंगी और गुजरात के समीपवर्ती पंजाब में भी मिलेंगी। ऐसी ही अनेक कथाएं अनेक समानताओं के साथ भारत के अनेक प्रदेशों में मिलती हैं।
विविधता में एकता तो भारत जन-जीवन की धमनियों में हमेशा से जीवंत रूप से धड़कती रही है। इसे संवर्धित करने की आज महती आवश्यकता है। इसके लिए देश की लोक संस्कृतियों को एक नक्शे पर लाने की आवश्यकता है, जिसमें राज्यों के भू-भागों, भाषाओं और उनकी विभिन्न बोलियों के क्षेत्र को अंकित करने की बजाय लोक संस्कृति के भू-प्रदेशों को स्पष्ट रूप से अंकित किया जाए, जो विविधता को एक सूत्र में समेटे हुए उसके वास्तविक स्वरूप का परिचय दे सकें।
भारत में विभिन्न जातियों और आगंतुक जातियों के बसने तथा उनके पारस्परिक आदान-प्रदान से जो भारतीय संस्कृति विकसित हुई है, उसका मुख्य घटक एक ही है और वह है-विभिन्न प्रदेश और उनमें बसने वाला मानव समुदाय। इन समुदायों के लोगों और उनकी भाषा को गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, मराठी, बांग्ला, तमिल आदि संज्ञा से पहचाना जा सकता है, लेकिन ये सब समुदाय जिस एक सांस्कृति छतरी के नीचे हैं, वह भारतीयता है, जिसके नीचे सभी समुदाय अपनी वे विशिष्टताएं भी रखे हुए है जिसे वे निजी रूप से अपना कह सकते हैं। इन विशिष्टताओं में उनकी लोक संस्कृति, लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक कला, लोक मनोरंजन, लोक शिल्प और लोक विश्वास आदि सम्मिलित हैं।
गुजरात का अपना भी ऐसा ही एक भारतीय गुजरातीपन है, जिसके मूल में यहां की भौगोलिक स्थिति और विविध जातियों, धर्मों के लोगों के आगमन तथा उनके यहां आकर बस जाने में रहा है। इसलिए लोक संस्कृति की दृष्टि से इस प्रदेश और उसके निवासियों के परिचय के लिए इन दो मुख्य घटकों पर दृष्टिपात किया जाना चाहिए।
भौगोलिक दृष्टि से गुजरात में कच्छ, सौराष्ट्र और गुजरात—ये तीन क्षेत्र हैं और ये तीनों एक ही इकाई हैं, गुजरात में मध्य गुजरात, उत्तर गुजरात और दक्षिण गुजरात आता है। कच्छ का कुल क्षेत्रफल 44,185.4 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से लगभग 23,310 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में रण का रेगिस्तान है, जो उत्तर में काफी बड़ा है तथा पूर्व और दक्षिण में अपेक्षाकृत छोटा। इसके पश्चिम में अरब सागर है। उत्तर में इसकी सीमा सिंध-पाकिस्तान के साथ लगी हुई है। समुद्री पानी के आ जाने से छोटा रण छिछला दलदली क्षेत्र है। इससे लगी जमीन के रेतीले होने के कारण इसे ‘कच्छ’ जैसा नाम दिया गया है। वैदिककालीन सरस्वती नदी कच्छ में पूर्व दिशा से बहकर समुद्र में मिलती थी। यह प्रदेश सिंधु संस्कृति वाला प्रदेश था, जिसे धोलावीरा के उत्खनन से मिले प्राचीन पुरातात्विक अवशेषों ने भी सिद्ध कर दिया है। समुद्र के तटवर्ती होने से जहाजरानी तथा मछली पकड़ने के साथ नमक बनाना यहां का मुख्य उद्योग है।
कच्छ के साहसी पुरुष जलयानों द्वारा अरब, अफ्रीका, लक्षद्वीप, श्रीलंका, जावा, बाली जैसे सुदूर देशों तक आया-जाया करते थे। उत्तर की ओर से सिंध-पंजाब होकर जो जातियां यहां आईं, उनमें से कई जातियां यहां स्थायी तौर पर बस गईं। यहीं जखौ बंदरगाह है और यहीं पर जख यानी यक्ष की पूजा होती है। यह यक्ष पूजा प्रमाणित करती है कि कितने ही ईरानी अपने जलयानों के ध्वस्त होने पर कच्छ में स्थायी रूप से बस गए। अनेक राजपूत राजवंशी भी उत्तर के रास्ते से यहां आए और उनके साथ उनकी एक खास जाति के मालधारी लोग भी आए। जत, खारवा, रबारी, जाड़ेजा, सुमरा, मीर, लंघा जैसी अनेक जातियां और उपजातियां आज कच्छ में निवास करती हैं। उनके गीत, कथाएं, भरतकाम (कपड़ों पर कढ़ाई-बुनाई), मिट्टी का काम, लोक संगीत की श्रेष्ठ एवं समर्थ परंपराएं आज भी इस क्षेत्र में विद्यमान हैं।
सौराष्ट्र में झालावाड़, हालार, गोहिलवाड़, सोरठ आदि क्षेत्रों का समावेश है, जहां प्रगैतिहासिक काल से ही अनेक जातियां बाहर से आकर बसती रही हैं। कृष्ण कथा के अनुसार मथुरा के यादव यहां आए और उन्होंने कालयवन से यह भूमि जीती तथा द्वारका की स्थापना की। वैदिक और पौराणिक साहित्य में इस क्षेत्र के, इसमें आकर बसने वाली विविध जातियों के, और छोटे-बड़े युद्धों के प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। इन उल्लेखों से इस प्रदेश और इसमें बसने वाली जातियों के इतिहास का पता चलता है। आदि, मध्य, अंतिम और नव-पाषाण युग में यहां मानव आबादी थी। प्राग् हड़प्पा संस्कृति के अवशेष यहां लोथल में मिलते हैं। पौराणिक काल में शर्यात, हैहय, यादव, आभीर आदि जातियां यहां निवास करती थीं। ई. पूर्व 322 से सन् 470 तक के मौर्य व गुप्त काल में सन् 470 से 942 तक के मैत्रक तथा अनुमैत्रक काल में, सन् 942 से 1304 तक के सोलंकी काल में, सन् 1304 से 1573 तक के सल्तनत काल में, सन् 1573 से सन् 1758 तक के मुगल काल में, सन् 1758 से 1818 तक के मराठा काल में और सन् 1914 के बाद से ब्रिटिश काल से आजादी आने तक की समयावधि में सौराष्ट्र, गुजरात के इतिहास के केंद्र में रहा है। अनेक देशी और विदेशी ज़ातियां यहां आकर बसीं, संघर्ष हुए और एक लंबी प्रक्रिया के बाद इन सब लोगों को सौराष्टीय गुजराती जनता का स्वरूप प्राप्त हुआ।
ईरानी यहां आए और वे पारसियों की भांति दक्षिण गुजरात में बसे, कच्छ में भी बसे। आभीर, यादव, शक, हूण आदि अनेक जातियां यहां आईं। सिंध के राजवंश भी कच्छ से आकर सौराष्ट्र के झालावाड़ और गोहिलवाड़ में बसे। मिडिया के लोग मेर बने। अफ्रीका के सीदी भी सोरठ में आकर बसे, और गिरि के जंगल में वनराज सिंहों के बीच जिस प्रकार आदिवासी रहते हैं उसी प्रकार वे भी रहते हैं। देश के अन्य भागों के राजवंश तथा पड़ोसी देशों के जो राजवंश यहां आए वे अपने साथ अपनी धर्म, परंपरा और पशुओं को भी लाए। अपनी परंपराओं को बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने पुरोहितों और जन-जातियों को भी यहां जमीन और आश्रय देकर बसाया। यही कारण है कि सौराष्ट्र में विविध जातियों और उपजातियों के लोग, कई तरह के ब्राह्मण और अनेक जन-जातियाँ पाई जाती हैं। इसीलिए यहां की भाषा और बोलियों में जितना वैविध्य है, उतना अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। पाणिनी जैसे महान वैयाकरण भी अनुस्वार के उच्चारण की बात करते हैं, जबकि दृष्टांत सौराष्ट्र की आयराणी द्वारा बोले जाने वाले गायुं, भेंसुं का देते हैं। यहां के वस्त्राभूषणों में वैविध्य है, उत्सव-मेलों में वैविध्य है, कथाओं और गीतों में वैविध्य है, सामाजिक और धार्मिक परंपराओं में वैविध्य है। विविध प्रकार के रास, गरबा हींच, विंछूड़ों, घोड़ों, हमची जैसे नृत्यों का वैविध्य है।
गीत, गान के प्रकार, ताल और वाद्यों का वैविध्य है। जितना वैविध्य यहां है उतना वैविध्य इतने ही भू-क्षेत्र वाले किसी भी दूसरे क्षेत्र में नहीं है। कोली, काठी, मेर, खवास, कोटिला, मियाणा, मुमना, मोलेसलाम, वहोरा, खोजा, भाट, चारण, बजाणिया, मदारी, सीदी, जत, खरवा, छीपा, वाघेर, भील आदि कितनी ही जातियां-प्रजातियां यहां निवास करती हैं। नागरस ब्राह्मण, कायस्थ, वणिक, राजपूत और रजपूत तथा कणबी व दूसरी निम्न वर्ग में परिगणित विविध जातियां, चारों वर्णों की मुख्य जातियां यहां हैं। इनकी मातृभाषा मुख्यतः रूप से तो गुजराती है, परंतु इनमें से हरेक की अपनी विशिष्ट बोली है। इनमें प्रयुक्त शब्द और उनके प्रयोग लाक्षणिक हैं। वेषभूषा हरेक की अलग और निश्चित है। जो अपना एक प्रतीकात्मक अर्थ रखती है। खान-पान रीति-रिवाज और रुचियों में भी हरेक का अपनापन है। रीति-रिवाज, उत्सव, संस्कार, विधियां, धर्म परंपराओं में हरेक की अपनी निजी छाप है। ये सब लोग होते हुए भी कुल मिलाकर एक ही हैं—सौराष्ट्री गुजराती।
सौराष्ट्र की भूमि कहीं समतल है तो कहीं गिरनार और शत्रुंजय जैसे पर्वतों से घिरी हुई है। आजी, शेत्रूंजी, हाथमती, रंगमती, फल्कु, भोगावो, भादर जैसी यहां नदियां हैं, फर्श और दीवारों के लीपने-पोतने में भी कलात्मकता, दीवारों पर बनाए गए मनमोहक चित्र, पाणियारों (वह स्थान जहां घरेलू उपयोग हेतु जल से भरे घड़े रखे जाते हैं-पलेढ़ी) के नागादि देवों के चित्र; नागला, आभला भरे हुए भरत, कपड़ों की किस्में, वस्त्रों पर सुंदर रंगीन भरतकाम के मोर, तोते और बेलें; अनेक प्रकार की धातु और मिट्टी के पात्र; खिड़की, दरवाजे और भित्तियों को सजाते हुए चाक-चंदरवा-तोरण, मोती का काम, कौड़ी का काम, कांबी, कडलां, झांझर, वाणी, नखली, घोड़े, मछली, डोणियां जैसे आभूषण; सूती और ऊनी वस्त्र, जात-पांत और क्षेत्र विशेष की स्पष्ट पहचान कराने वाली विभिन्न प्रकार की पगड़ियां; स्त्रियों तथा भरथरियों द्वारा गाए जाने वाले रासडा और कथा-गीत; जीवन के हर पल को सजाने वाली जगह-जगह के रहने वालों की कला, जिसमें भारत तो है ही, भारत से बाहर का भी प्रतिनिधित्व है। जो-जो विदेशी जातियां यहां आईं हैं, उनके साथ ही उनकी ये सब परंपराएं भी आई हैं।
गुजरात के शेष क्षेत्र में मध्य, उत्तर और दक्षिण गुजरात है, जिसमें सौराष्ट्र जैसा ही संपन्न लोक संपदा है, नदियां हैं, नाले हैं पर्वत और टीले हैं, विविध जातियां हैं। बस, दक्षिण गुजरात से होड़ लेता हुआ यहां समुद्र तट नहीं है। अधिकांश क्षेत्र समतल है। उत्तर की तरफ अरावली और पूर्वी सीमा पर विंध्याचल की तलहटी वाला पहाड़ी प्रदेश है। अरावली गुजरात और राजस्थान के संधि स्थल पर 5,600 फुट की ऊंचाई वाला पर्वत है, जो पावागढ़ से आगे विंध्याचल के अंचल में मिल जाता है। गुजरात में जहां-जहां पहाड़ है, छोटे-छोटे टीले-टेकरियां हैं, वहां-वहां देवी-देवताओं के तीर्थस्थल हैं। आबू के दक्षिण में आरासुर में देवी अंबिका विराजमान है और पावागढ़ में माता कालिका। बनासकांठा में जो जातियां हैं, उनके गीत और उत्सवों का संबंध राजस्थान के साथ है। टीले-टेकरियों के जंगलों में साग, शीशम, खैर, बबूल, महुआ और बांस के पेड़ होते हैं। हरड़, बहेड़ा, आंवला, गुंदर, लाख और अन्य औषधियां इन्हीं जंगलों से मिलती हैं। आदिवासी थोड़ी-बहुत खेती और वनों की उपज पर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। उनकी कथाओं, गीतों, धार्मिक विधियों, होली-दिवाली के उत्सवों में प्राचीन परंपराएं प्रचलित हैं। साबरकांठा का खेड़ब्रह्मा, ईडर, हिम्मतनगर और भिलोड़ा में आदिवासी जन-जातियां रहती है। यहां के वनों से बाघ तो लुप्त हो गया है लेकिन, उसी की जाति का एक अन्य जीव—दीपड़ा, सूअर, सांभर और घोड़े से मिलता-जुलता जंगली पशु-रेझड़ा आदि भी मिलते हैं। यहां महुए के पेड़ों की बहुतायत है, जो यहां के जीवन को खूब बहकाता-छलकाता है।
साबरकांठा के दक्षिण में पंचमहाल है और चंपानेर के पावागढ़ में परई रावण का नाश करने वाली महाकाली विराजमान है। यहां भी जंगल है और यहीं छोटाउदेपुर से विंध्याचल की दक्षिणवर्ती पर्वत माला शुरू होती है। गुजरात की माताओं जैसी नर्मदा और तापी नदियों के बीच सतपुड़ा पर्वत पड़ता है। तापी के दक्षिण में सह्याद्रि की पर्वतमाला है, जिसके वन क्षेत्र में नंदरबार, सोनागढ़, वासंदा, धरमपुर आदि पड़ते हैं। यहां के आदिवासियों में कथा और गीतों की एक सुदीर्घ परंपरा है। यहां की कूकड़ा और डांगी बोली में सृष्टि के प्रलय और उसके पुनर्निर्माण की कथा में अन्नदेवी कणसली देवी का स्थान प्रमुख है। यहां पर खेड़ब्राह्मा के आदिवासियों की तरह बीज की पाट-उपासना का प्रचलन है। विविध प्रकार के देव-देवियों की विविध विधि-विधानों से पूजा-अर्चना की जाती है। रामायण, महाभारत और अन्य धार्मिक आख्यान यहां की श्रुत परंपरा में हैं। इन आदिवासियों की ये कथाएं रामकथा, कृष्णकथा और पांडव आदि की लिखित कथाओं से कुछ भिन्न हैं। ये लिखित कथाओं की परंपरा की उपरजीवी कथाएं नहीं हैं, क्योंकि इनमें अनेक तात्विक भिन्नता वाले कथानक हैं, मांगरोल से धरमपुरा की तरफ अलग होने वाली पर्वतमाला का आरंभ 48 किलोमीटर पहले हो जाता है, जो दक्षिण की तरफ मुड़ती हुई 24 किलोमीटर संकरी होकर समुद्र तट से जा मिलती है। डांग क्षेत्र 1,500 से 2,000 फुट की ऊंचाई वाला क्षेत्र है। घनी वर्षा होने के कारण यह खूब हरा-भरा वन क्षेत्र है।
दक्षिण गुजरात क्षेत्र को अरब सागर के तटवर्ती होने का लाभ मिला है। यहां पर समुद्री मार्ग से आकर अनेक जातियां बसी हैं। भारत में मुस्लिम शासन स्थापित हुआ उससे पहले ही गुजरात में इस्लाम धर्मी बसे हुए थे। सोलंकी वंश के राजा सिद्धराज की एक ऐसी भी कथा मिलती है कि उनके राज्य के अंतर्गत खंबात में खतीब नाम के गरीब मुसलमान बसे हुए थे जिन्हें अग्निपूजक यानी पारसी और ब्राह्मण परेशान करते थे। अतः पारसी और ब्राह्मणों को सजा देकर सिद्धराज ने उनके साथ न्याय किया था।
गुजरात के समतल क्षेत्र में मुख्यतः मध्य गुजरात और उत्तर गुजरात के भू-भाग हैं। साबरमती, वात्रक, हाथमती, खारी, शेढ़ी, मेश्वो आदि इस क्षेत्र की मुख्य नदियां हैं। यहां का पटण नगर समग्र गुजरात की राजधानी का मुख्य केंद्र रहा है। सौराष्ट्र के जूनागढ़ के राजा रा’नघण के साथ सोलंकी वंश के राजा सिद्धराज का संघर्ष हुआ था। लोक कथा के अनुसार रानी राणक के लिए सिद्धराज और रा’खेंगार के बीच युद्ध हुआ और राणक भोगावो नदी के पास सती हो गई। सिद्धराज के साथ जसमा ओडण और बाबरा भूत की कथाएं भी जुड़ी हुई हैं। कंकाली, चामुंडा, और बावन वीर आदि की कथाएं भी जुड़ी हुई हैं। मूल कथाओं का जो रूपांतरण हुआ है, वह ऐसा प्रतीत होता है कि भाट, चारण और बारोट जैसे पेशेवर गायकों ने किया है। ये पेशेवर गायक यदि किसी राजा से अप्रसन्न हो जाते थे तो उसे बदनाम करने के लिए या उसके दुश्मन को खुश करने के लिए ऐसी कथाएं गढ़ लिया करते थे।
इसके लिए वे किसी पुरानी कथा के दो पात्रों के नाम बदलकर और अनेक संदर्भों के ऐतिहासिक होने का आभास देते हुए, कथाओं का रूपांतरण कर दिया करते थे। सिद्धराज जूनागढ़ के राजा रा’नवघण का समकालीन था, लेकिन रा’खेंगार तो उस समय मात्र बारह वर्ष का था ! बारह वर्ष के बालक के साथ कैसा युद्ध ? इससे स्पष्ट होता है कि रणक-रा’खेंगार और सिद्धराज की कथा सोरठ-वीसू की प्रेमकथा में हेरफेर करके गढ़ी गई है। इसी प्रकार संभव है कि जसमा ओडण की कथा के साथ भी ऐसा ही हुआ हो। लेकिन यह सुनिश्चित है कि गुजरात ने सोलंकी काल में ही स्वर्णयुग का अनुभव किया था। उसकी कलाओं का विकास हुआ था और इसी काल में कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र ने ‘द्वायाश्रय’ जैसे महाकाव्य तथा ‘सिद्धहैम’ नाम के व्याकरण की रचना की थी। सिद्धराज ने जब मालवा को विजय किया तो वह वहां से अनेक विद्याओं की हस्तलिखित पांडुलिपियां ले आया और उन पांडुलिपियों की अनेक प्रतिलिपियां, पटण में कायस्थ लहियाओं को रोककर उनसे कराईं और उन प्रतिलिपियों को गुजरात के विविध नगरों के ग्रंथ भंडारों को भेजा।
जो प्रदेश विभिन्न पड़ोसी राष्ट्रों के मध्य नहीं होते, उनका अलग ही एक वृहत भौगोलिक क्षेत्र होता है, और वे एक स्वतंत्र इकाई होते हैं, उनको पड़ोस के भिन्न जन-जीवन और उनकी सभ्यता, संस्कृति से विनिमय का लाभ नहीं मिलता। लेकिन प्रायः ऐसा नहीं होता। अमेरिका, यूरोप, मध्यपूर्व, अफ्रीका, भारत, चीन, जापान, रूस आदि के भू-क्षेत्र अत्यंत विशाल हैं, जिनमें प्रगैतिहासिक काल से लेकर उन्नीसवीं-बीसवीं सदी तक, एक साथ अनेक जातियां बसी हुई पाई गई हैं। आक्रमण और स्थानांतरण का सिलसिला बराबर चलता रहा है, जिससे एक तरह से संकुल और मिश्रित संस्कृति बनी है और जिसका विकास होता रहा है। इसके साथ ही भिन्न जातियों की भिन्न भाषाओं और धर्मों के कारण भी आपसी संघर्ष हुए हैं, परिणामस्वरूप जो इक्कीसवीं सदी में हल की जा सकें ऐसी समस्याएं भी जन्मी हैं।
गुजरात प्रदेश को केन्द्र में रखकर इस विषय पर विचार करें तो गुजरात अखंड भारत का एक भू-भौगोलिक क्षेत्र है जहां इतिहास के आरंभ होने के पूर्व से ही लोग निवास करते आ रहे हैं, यह सिद्ध हो चुका है, इस प्रदेश के पश्चिम में विशाल सागर तट है। इस तट पर आकर जो लोग बसे उनके आदिपुरुष अफ्रीका के पूर्वी किनारे से आए होंगे, ऐसा अनुमान किया जाता है। इस अनुमान का आधार यह है कि जब हिमालय का सृजन हुआ, उस दौरान भारत के पश्चिमी भाग से अफ्रीका का भू-खंड अलग हो गया। इस भौगोलिक नवसृजन की प्रक्रिया को ध्यान में रखा जाए तो इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि आदिमानव समूह, जो अफ्रीका में बसता था वही वर्तमान सौराष्ट्र कहे जाने वाले भू-भाग में भी बसा हुआ था। नक्शे को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों भू-खंड एक दूसरे से अलग हुए हैं और उनके बीच का भाग अरब सागर बना है। विश्व में सिंहों की आबादी गुजरात के सौराष्ट्र स्थित गिर के जंगल और अफ्रीका के जंगल-केवल इन दो जगहों में ही पाई जाती है। इन दोनों—अफ्रीका के सिंह और गिरि के भारतीय सिंह में जो अंतर है, वह पर्यावरण की भिन्नता के साथ सामंजस्य बैठाने के कारण है आया है।
सिंहों पर अध्ययन करनेवाले प्राणि वैज्ञानिकों का मानना है कि एशियन लायन और अफ्रीकन लायन का विकास किसी एक ही मूल से हुआ है। इस तरह गुजरात का इतिहास, उसकी भूमि और उस पर लोगों की बनावट अत्यंत प्राचीन है, और यह हिमालय के सृजन की भौगोलिक प्रक्रिया से पहले की है।
इसके बाद पाषाण युग के प्रगैतिहासिक काल के ताम्र व कांस्य युग तक के कालखंड तथा ईसा पूर्व 322 से सन् 1304 तक की समयावधि के कालखंड हैं। इन कालखंडों में यहाँ अनेक जातियों का आगमन हुआ। वे यहाँ आईं और आकर बस गईं। नृवंश-शास्त्रियों की खोजों के अनुसार सत्तर से बाइस लाख वर्ष पहले गुजरात में जो लोग रहते थे, वे नीग्रो या निग्रिटो जाति के थे। इसका प्रमाण यह है कि उनके अस्थि-पिंजर हमें सौराष्ट्र क्षेत्र में मिले हैं, जिनके सिर लंबे, कद साधारण, कपाल उभरा हुआ और भौहें तथा होंठ लटके हुए हैं।
इसके बाद पौराणिक साहित्य तथा उसके पहले के वेदकालीन साहित्य में गुजरात-सौराष्ट्र के भू-प्रदेश और उस पर रहनेवालों के अनेक उल्लेख मिलते हैं। ऐतिहासिक युग के आरंभ के साथ ही विविध जातियों के आगमन और यहां बस जाने का भी इतिहास भी मिलता है। इस प्रकार गुजरात और उसके निवासियों का इतिहास अत्यंत प्राचीन और जीवंत है, जो पृथ्वी के पटल पर हिमालय जैसे भू-भौगोलिक परिवर्तन से पहले ही आरंभ हो चुका था।
वर्तमान गुजरात भारतीय उपमाहाद्वीप का पश्चिमोत्तर प्रदेश है, जो 20.1 डिग्री उत्तर और 24.7 डिग्री उत्तर अक्षांश तथा 68.4 डिग्री पूर्व और 74.4 डिग्री पूर्व रेखांश के बीच स्थित है। कुल 4 अंश और 14 रेखांश के बीच पृथ्वी पर फैले इस प्रदेश का विस्तार 1,87,091 वर्ग किलोमीटर है। दीव और दमण जैसे केंद्र शासित क्षेत्र भी इसी के अंतर्गत आते हैं, जो लोक संस्कृति के संदर्भ में गुजरात से ही संबद्ध हैं।
इस प्रदेश के उत्तर में मारवाड़-राजस्थान, पूर्व में मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र का खानदेश क्षेत्र है, दक्षिण में महाराष्ट्र के नासिक तथा कोंकण जिलों की सीमाओं तक इसका विस्तार है। पश्चिम की ओर अरब सागर है तथा उत्तर पश्चिम में सिंध प्रदेश है, जिसे देश के विभाजन के समय पाकिस्तान को दिए जाने से अब उसे पाकिस्तान के एक प्रांत के रूप में जाना जाता है।
किसी भी प्रदेश में बोली जाने वाली भाषा या भाषाएं तथा उनकी बोलियां जो लिखित या श्रुत परंपरा में होती हैं। गुजरात प्रदेश को कच्छ, सौराष्ट्र, मध्य गुजरात, उत्तर गुजरात और दक्षिण गुजरात जैसे मुख्य भौगोलिक क्षेत्रों में बांटा जाए तो कच्छ का सिंध के साथ, उत्तर गुजरात का मारवाड़-राजस्थान के साथ और दक्षिण गुजरात का महाराष्ट्र के साथ संबंध है। पंचमहाल का मध्य प्रदेश की सीमा के साथ संबंध है। गुजरात की चारों सीमाओं में से तीन सीमाओं का संबंध मारवाड़-राजस्थान के साथ, सिंध, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के साथ है। इसलिए इसके जो सीमांत क्षेत्र हैं, उनमें बोली जाने वाली भाषाएं, उनके साहित्य और बोलियों को लोक साहित्य, उत्सव, पर्व और कला-कौशल आदि का पड़ोसी राज्यों की भाषा, साहित्य, संस्कृति आदि के साथ निकट संबंध है। कच्छ की अनेक कथाएं सिंध-पंजाब की कथाओं से सीधा संबंध रखती हैं। यो कथाएं एक जैसी ही नहीं, बल्कि कहा जाए तो एक ही हैं। कच्छ के शाह अब्दुल लतीप शाह(सन् 1689-1752) द्वारा रचित जो शाह-जो-रिसालो है, उसकी जो परंपरा कच्छ में है, वही सिंध-पाकिस्तान में है। आज के हरियाणा और पंजाब में भी वही कथाएं हैं, जो कच्छ और सिंध-पंजाब में हैं। कच्छ के पश्चिमोत्तर क्षेत्र की जो कथाएं और गीत हैं, उनका सीधा संबंध मारवाड़-राजस्थान के साथ है।
मीरा जितनी मेवाड़ की हैं उतनी है गुजरात की हैं। भरुच के कायस्थ कवि गणपति द्वारा सन् 1518 में रचित माधवानल-कामकंदला दोग्धक प्रबंध राजस्थान के प्रेमाख्यान पर आधारित माना जाता है। गुजरात प्रदेश की भाषा का जो ‘गुजराती’ नाम और उसका एक पृथक स्वरूप निर्धारित हुआ है, उससे पहले इस भाषा को तेस्सीतोरी ने ओल्ड वेस्टर्न राजस्थानी और उमाशंकर जोशी ने मारु गुर्जर नाम दिया था। अनेक भाट, चारण, बारोट ही नहीं, राजपूत और रबारी भी गुजरात-सौराष्ट्र, मारवाण-राजस्थान के प्रवास, निवास, व्यवसाय, अध्यवसाय द्वारा तथा अन्य अनेक प्रकार और अनेक निमित्त से गुजरात के साथ जुड़े हुए थे और आज भी जुड़े हुए हैं। गुजरात के साबरकांठा की ईडरिया मेवाड़ा ब्राह्मणों की जाति, उत्तर गुजरात के चौधरी, खेड़ब्रह्मा के आदिवासी माने जाने वाले भील, गरासिया आदि के घरेलू बोल-चाल के शब्द, लग्न आदि की कितनी ही रीति-रिवाज़ों, उनके गीतों और कथाओं का संबंध राजस्थान के साथ है।
रामदेव पीर की जो पाट उपासना और रूपांदे-मालदे की पूजन विधि (रेल) राजस्थान में है, वही गुजरात-सौराष्ट्र की अनेक जातियों में है। इनमें केवल उपासना पद्धति ही समान हो, इतना ही नहीं, संत वाणी व भजनों की कितनी ही पंक्तियाँ व कड़ियां भी एक समान हैं। मारवाड़-राजस्थान के भाट-चारण गत सदी तक कच्छ में स्थित ब्रजभाषा की पाठशाला में डिंगल-पिंगल का अध्ययन करने आते थे। इनमें से कितने ही व्यवसाय के लिए इन दोनों प्रदेशों में आते-जाते रहते थे, कितने ही स्थायी रूप से बस जाते थे। सौराष्ट्र के राज-परिवार के ब्याह-शादी संबंध जोधपुरी बीकानेर के राज-परिवारों के साथ रहते थे। गुजरात के बडारण, शास्त्री, गोर राजस्थान में जाकर बस जाते थे, उसी प्रकार वहां से आकर लोग गुजरात में बस जाते थे। इस प्रकार इस सदी का विशेषतः राजपूत, चारण और रबारियों के माध्यम से गुजरात की लोक परंपरा में राजस्थान, और राजस्थान की लोक परंपरा में गुजरात देखने को मिलता है।
ऐसा ही मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के साथ है। कुकणा बोली, डांगी आदि की अनेक कथाओं-गीतों में कहीं एक रूपता तो कहीं समानता देखने को मिलती है। गुजरात का ऐसा संबंध मात्र राजस्थान-मारवाड़, मालवा-उज्जैन और महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है, और भी व्यापक है। लोक संस्कृति का अत्यंत समर्थ और वाचिक अंग लोक साहित्य है। लग्न गीत जैसे लोक साहित्य के अंतर्गत लोगों ने संस्कार गीत, विविध रंजक और बोधपरक लोक कथाएं सही मायनों में सदियों से रची हैं। ऐसी अनेक प्रेम कथाएं, वीर गाथाएं, रामायण, महाभारत आदि की श्रुत परंपरा की कथाएं तथा उनपर आधारित लोक गीत है जो भारत भर में प्रचलित है।
इनका साम्यमूलक अध्ययन किया जाए तो ज्ञात हो सकता है कि गुजरात की ये परंपराएं नेपाल और उड़ीसा तक गई हैं और बंगाल, बिहार की परंपराएं गुजरात में आई हैं। राजपरिवारों के देशव्यापी शादी-विवाह संबंध, विविध पंथ के साधु-संतों का देशाटन, धार्मिक यात्राओं के अंतर्गत चारों धामों का पारस्परिक संबंध, सार्थवाहों के दल, सैनिकों के स्थानांतरण-इन सब कारणों से ‘विविधता में एकता’ की जिस समय कोई विशेष संप्रज्ञता नहीं थी, उस युग में भी भारत के इन विविध राज्यों की प्रजा एक थी। उसकी लोक संपदा एक थी। लिखित परंपरा में नरसिंह मेहता के किसी भी पद की अंतिम पंक्ति का यह वाक्य—‘नरसैंया नो स्वामी’ दूसरे प्रदेश में जाकर—‘नरसैंया का स्वामी’ या ‘नरसैया चा स्वामी’ में परिवर्तित हो, सही अर्थों में ‘भारतीय’ बन जाता है। भाषाचूर्णी भी काव्य का एक प्रकार था, जिसमें किसी एक कवि के एक ही काव्य की चौदह पंक्तियों में चौदह भारतीय भाषाओं का प्रयोग होता था। गुजरात के कवि दयाराम तक यह परंपरा रही। माधवानल-कामकंदला, ढोला-मारू, सदेवंत-सावलिंगा, नंदबत्तीसी आदि ऐसी अनेक कथाएं हैं, जो गुजरात, राजस्थान, मारवाड़, मालवा, महाराष्ट्र में मिलेंगी और गुजरात के समीपवर्ती पंजाब में भी मिलेंगी। ऐसी ही अनेक कथाएं अनेक समानताओं के साथ भारत के अनेक प्रदेशों में मिलती हैं।
विविधता में एकता तो भारत जन-जीवन की धमनियों में हमेशा से जीवंत रूप से धड़कती रही है। इसे संवर्धित करने की आज महती आवश्यकता है। इसके लिए देश की लोक संस्कृतियों को एक नक्शे पर लाने की आवश्यकता है, जिसमें राज्यों के भू-भागों, भाषाओं और उनकी विभिन्न बोलियों के क्षेत्र को अंकित करने की बजाय लोक संस्कृति के भू-प्रदेशों को स्पष्ट रूप से अंकित किया जाए, जो विविधता को एक सूत्र में समेटे हुए उसके वास्तविक स्वरूप का परिचय दे सकें।
भारत में विभिन्न जातियों और आगंतुक जातियों के बसने तथा उनके पारस्परिक आदान-प्रदान से जो भारतीय संस्कृति विकसित हुई है, उसका मुख्य घटक एक ही है और वह है-विभिन्न प्रदेश और उनमें बसने वाला मानव समुदाय। इन समुदायों के लोगों और उनकी भाषा को गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, मराठी, बांग्ला, तमिल आदि संज्ञा से पहचाना जा सकता है, लेकिन ये सब समुदाय जिस एक सांस्कृति छतरी के नीचे हैं, वह भारतीयता है, जिसके नीचे सभी समुदाय अपनी वे विशिष्टताएं भी रखे हुए है जिसे वे निजी रूप से अपना कह सकते हैं। इन विशिष्टताओं में उनकी लोक संस्कृति, लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक कला, लोक मनोरंजन, लोक शिल्प और लोक विश्वास आदि सम्मिलित हैं।
गुजरात का अपना भी ऐसा ही एक भारतीय गुजरातीपन है, जिसके मूल में यहां की भौगोलिक स्थिति और विविध जातियों, धर्मों के लोगों के आगमन तथा उनके यहां आकर बस जाने में रहा है। इसलिए लोक संस्कृति की दृष्टि से इस प्रदेश और उसके निवासियों के परिचय के लिए इन दो मुख्य घटकों पर दृष्टिपात किया जाना चाहिए।
भौगोलिक दृष्टि से गुजरात में कच्छ, सौराष्ट्र और गुजरात—ये तीन क्षेत्र हैं और ये तीनों एक ही इकाई हैं, गुजरात में मध्य गुजरात, उत्तर गुजरात और दक्षिण गुजरात आता है। कच्छ का कुल क्षेत्रफल 44,185.4 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से लगभग 23,310 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में रण का रेगिस्तान है, जो उत्तर में काफी बड़ा है तथा पूर्व और दक्षिण में अपेक्षाकृत छोटा। इसके पश्चिम में अरब सागर है। उत्तर में इसकी सीमा सिंध-पाकिस्तान के साथ लगी हुई है। समुद्री पानी के आ जाने से छोटा रण छिछला दलदली क्षेत्र है। इससे लगी जमीन के रेतीले होने के कारण इसे ‘कच्छ’ जैसा नाम दिया गया है। वैदिककालीन सरस्वती नदी कच्छ में पूर्व दिशा से बहकर समुद्र में मिलती थी। यह प्रदेश सिंधु संस्कृति वाला प्रदेश था, जिसे धोलावीरा के उत्खनन से मिले प्राचीन पुरातात्विक अवशेषों ने भी सिद्ध कर दिया है। समुद्र के तटवर्ती होने से जहाजरानी तथा मछली पकड़ने के साथ नमक बनाना यहां का मुख्य उद्योग है।
कच्छ के साहसी पुरुष जलयानों द्वारा अरब, अफ्रीका, लक्षद्वीप, श्रीलंका, जावा, बाली जैसे सुदूर देशों तक आया-जाया करते थे। उत्तर की ओर से सिंध-पंजाब होकर जो जातियां यहां आईं, उनमें से कई जातियां यहां स्थायी तौर पर बस गईं। यहीं जखौ बंदरगाह है और यहीं पर जख यानी यक्ष की पूजा होती है। यह यक्ष पूजा प्रमाणित करती है कि कितने ही ईरानी अपने जलयानों के ध्वस्त होने पर कच्छ में स्थायी रूप से बस गए। अनेक राजपूत राजवंशी भी उत्तर के रास्ते से यहां आए और उनके साथ उनकी एक खास जाति के मालधारी लोग भी आए। जत, खारवा, रबारी, जाड़ेजा, सुमरा, मीर, लंघा जैसी अनेक जातियां और उपजातियां आज कच्छ में निवास करती हैं। उनके गीत, कथाएं, भरतकाम (कपड़ों पर कढ़ाई-बुनाई), मिट्टी का काम, लोक संगीत की श्रेष्ठ एवं समर्थ परंपराएं आज भी इस क्षेत्र में विद्यमान हैं।
सौराष्ट्र में झालावाड़, हालार, गोहिलवाड़, सोरठ आदि क्षेत्रों का समावेश है, जहां प्रगैतिहासिक काल से ही अनेक जातियां बाहर से आकर बसती रही हैं। कृष्ण कथा के अनुसार मथुरा के यादव यहां आए और उन्होंने कालयवन से यह भूमि जीती तथा द्वारका की स्थापना की। वैदिक और पौराणिक साहित्य में इस क्षेत्र के, इसमें आकर बसने वाली विविध जातियों के, और छोटे-बड़े युद्धों के प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। इन उल्लेखों से इस प्रदेश और इसमें बसने वाली जातियों के इतिहास का पता चलता है। आदि, मध्य, अंतिम और नव-पाषाण युग में यहां मानव आबादी थी। प्राग् हड़प्पा संस्कृति के अवशेष यहां लोथल में मिलते हैं। पौराणिक काल में शर्यात, हैहय, यादव, आभीर आदि जातियां यहां निवास करती थीं। ई. पूर्व 322 से सन् 470 तक के मौर्य व गुप्त काल में सन् 470 से 942 तक के मैत्रक तथा अनुमैत्रक काल में, सन् 942 से 1304 तक के सोलंकी काल में, सन् 1304 से 1573 तक के सल्तनत काल में, सन् 1573 से सन् 1758 तक के मुगल काल में, सन् 1758 से 1818 तक के मराठा काल में और सन् 1914 के बाद से ब्रिटिश काल से आजादी आने तक की समयावधि में सौराष्ट्र, गुजरात के इतिहास के केंद्र में रहा है। अनेक देशी और विदेशी ज़ातियां यहां आकर बसीं, संघर्ष हुए और एक लंबी प्रक्रिया के बाद इन सब लोगों को सौराष्टीय गुजराती जनता का स्वरूप प्राप्त हुआ।
ईरानी यहां आए और वे पारसियों की भांति दक्षिण गुजरात में बसे, कच्छ में भी बसे। आभीर, यादव, शक, हूण आदि अनेक जातियां यहां आईं। सिंध के राजवंश भी कच्छ से आकर सौराष्ट्र के झालावाड़ और गोहिलवाड़ में बसे। मिडिया के लोग मेर बने। अफ्रीका के सीदी भी सोरठ में आकर बसे, और गिरि के जंगल में वनराज सिंहों के बीच जिस प्रकार आदिवासी रहते हैं उसी प्रकार वे भी रहते हैं। देश के अन्य भागों के राजवंश तथा पड़ोसी देशों के जो राजवंश यहां आए वे अपने साथ अपनी धर्म, परंपरा और पशुओं को भी लाए। अपनी परंपराओं को बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने पुरोहितों और जन-जातियों को भी यहां जमीन और आश्रय देकर बसाया। यही कारण है कि सौराष्ट्र में विविध जातियों और उपजातियों के लोग, कई तरह के ब्राह्मण और अनेक जन-जातियाँ पाई जाती हैं। इसीलिए यहां की भाषा और बोलियों में जितना वैविध्य है, उतना अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। पाणिनी जैसे महान वैयाकरण भी अनुस्वार के उच्चारण की बात करते हैं, जबकि दृष्टांत सौराष्ट्र की आयराणी द्वारा बोले जाने वाले गायुं, भेंसुं का देते हैं। यहां के वस्त्राभूषणों में वैविध्य है, उत्सव-मेलों में वैविध्य है, कथाओं और गीतों में वैविध्य है, सामाजिक और धार्मिक परंपराओं में वैविध्य है। विविध प्रकार के रास, गरबा हींच, विंछूड़ों, घोड़ों, हमची जैसे नृत्यों का वैविध्य है।
गीत, गान के प्रकार, ताल और वाद्यों का वैविध्य है। जितना वैविध्य यहां है उतना वैविध्य इतने ही भू-क्षेत्र वाले किसी भी दूसरे क्षेत्र में नहीं है। कोली, काठी, मेर, खवास, कोटिला, मियाणा, मुमना, मोलेसलाम, वहोरा, खोजा, भाट, चारण, बजाणिया, मदारी, सीदी, जत, खरवा, छीपा, वाघेर, भील आदि कितनी ही जातियां-प्रजातियां यहां निवास करती हैं। नागरस ब्राह्मण, कायस्थ, वणिक, राजपूत और रजपूत तथा कणबी व दूसरी निम्न वर्ग में परिगणित विविध जातियां, चारों वर्णों की मुख्य जातियां यहां हैं। इनकी मातृभाषा मुख्यतः रूप से तो गुजराती है, परंतु इनमें से हरेक की अपनी विशिष्ट बोली है। इनमें प्रयुक्त शब्द और उनके प्रयोग लाक्षणिक हैं। वेषभूषा हरेक की अलग और निश्चित है। जो अपना एक प्रतीकात्मक अर्थ रखती है। खान-पान रीति-रिवाज और रुचियों में भी हरेक का अपनापन है। रीति-रिवाज, उत्सव, संस्कार, विधियां, धर्म परंपराओं में हरेक की अपनी निजी छाप है। ये सब लोग होते हुए भी कुल मिलाकर एक ही हैं—सौराष्ट्री गुजराती।
सौराष्ट्र की भूमि कहीं समतल है तो कहीं गिरनार और शत्रुंजय जैसे पर्वतों से घिरी हुई है। आजी, शेत्रूंजी, हाथमती, रंगमती, फल्कु, भोगावो, भादर जैसी यहां नदियां हैं, फर्श और दीवारों के लीपने-पोतने में भी कलात्मकता, दीवारों पर बनाए गए मनमोहक चित्र, पाणियारों (वह स्थान जहां घरेलू उपयोग हेतु जल से भरे घड़े रखे जाते हैं-पलेढ़ी) के नागादि देवों के चित्र; नागला, आभला भरे हुए भरत, कपड़ों की किस्में, वस्त्रों पर सुंदर रंगीन भरतकाम के मोर, तोते और बेलें; अनेक प्रकार की धातु और मिट्टी के पात्र; खिड़की, दरवाजे और भित्तियों को सजाते हुए चाक-चंदरवा-तोरण, मोती का काम, कौड़ी का काम, कांबी, कडलां, झांझर, वाणी, नखली, घोड़े, मछली, डोणियां जैसे आभूषण; सूती और ऊनी वस्त्र, जात-पांत और क्षेत्र विशेष की स्पष्ट पहचान कराने वाली विभिन्न प्रकार की पगड़ियां; स्त्रियों तथा भरथरियों द्वारा गाए जाने वाले रासडा और कथा-गीत; जीवन के हर पल को सजाने वाली जगह-जगह के रहने वालों की कला, जिसमें भारत तो है ही, भारत से बाहर का भी प्रतिनिधित्व है। जो-जो विदेशी जातियां यहां आईं हैं, उनके साथ ही उनकी ये सब परंपराएं भी आई हैं।
गुजरात के शेष क्षेत्र में मध्य, उत्तर और दक्षिण गुजरात है, जिसमें सौराष्ट्र जैसा ही संपन्न लोक संपदा है, नदियां हैं, नाले हैं पर्वत और टीले हैं, विविध जातियां हैं। बस, दक्षिण गुजरात से होड़ लेता हुआ यहां समुद्र तट नहीं है। अधिकांश क्षेत्र समतल है। उत्तर की तरफ अरावली और पूर्वी सीमा पर विंध्याचल की तलहटी वाला पहाड़ी प्रदेश है। अरावली गुजरात और राजस्थान के संधि स्थल पर 5,600 फुट की ऊंचाई वाला पर्वत है, जो पावागढ़ से आगे विंध्याचल के अंचल में मिल जाता है। गुजरात में जहां-जहां पहाड़ है, छोटे-छोटे टीले-टेकरियां हैं, वहां-वहां देवी-देवताओं के तीर्थस्थल हैं। आबू के दक्षिण में आरासुर में देवी अंबिका विराजमान है और पावागढ़ में माता कालिका। बनासकांठा में जो जातियां हैं, उनके गीत और उत्सवों का संबंध राजस्थान के साथ है। टीले-टेकरियों के जंगलों में साग, शीशम, खैर, बबूल, महुआ और बांस के पेड़ होते हैं। हरड़, बहेड़ा, आंवला, गुंदर, लाख और अन्य औषधियां इन्हीं जंगलों से मिलती हैं। आदिवासी थोड़ी-बहुत खेती और वनों की उपज पर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। उनकी कथाओं, गीतों, धार्मिक विधियों, होली-दिवाली के उत्सवों में प्राचीन परंपराएं प्रचलित हैं। साबरकांठा का खेड़ब्रह्मा, ईडर, हिम्मतनगर और भिलोड़ा में आदिवासी जन-जातियां रहती है। यहां के वनों से बाघ तो लुप्त हो गया है लेकिन, उसी की जाति का एक अन्य जीव—दीपड़ा, सूअर, सांभर और घोड़े से मिलता-जुलता जंगली पशु-रेझड़ा आदि भी मिलते हैं। यहां महुए के पेड़ों की बहुतायत है, जो यहां के जीवन को खूब बहकाता-छलकाता है।
साबरकांठा के दक्षिण में पंचमहाल है और चंपानेर के पावागढ़ में परई रावण का नाश करने वाली महाकाली विराजमान है। यहां भी जंगल है और यहीं छोटाउदेपुर से विंध्याचल की दक्षिणवर्ती पर्वत माला शुरू होती है। गुजरात की माताओं जैसी नर्मदा और तापी नदियों के बीच सतपुड़ा पर्वत पड़ता है। तापी के दक्षिण में सह्याद्रि की पर्वतमाला है, जिसके वन क्षेत्र में नंदरबार, सोनागढ़, वासंदा, धरमपुर आदि पड़ते हैं। यहां के आदिवासियों में कथा और गीतों की एक सुदीर्घ परंपरा है। यहां की कूकड़ा और डांगी बोली में सृष्टि के प्रलय और उसके पुनर्निर्माण की कथा में अन्नदेवी कणसली देवी का स्थान प्रमुख है। यहां पर खेड़ब्राह्मा के आदिवासियों की तरह बीज की पाट-उपासना का प्रचलन है। विविध प्रकार के देव-देवियों की विविध विधि-विधानों से पूजा-अर्चना की जाती है। रामायण, महाभारत और अन्य धार्मिक आख्यान यहां की श्रुत परंपरा में हैं। इन आदिवासियों की ये कथाएं रामकथा, कृष्णकथा और पांडव आदि की लिखित कथाओं से कुछ भिन्न हैं। ये लिखित कथाओं की परंपरा की उपरजीवी कथाएं नहीं हैं, क्योंकि इनमें अनेक तात्विक भिन्नता वाले कथानक हैं, मांगरोल से धरमपुरा की तरफ अलग होने वाली पर्वतमाला का आरंभ 48 किलोमीटर पहले हो जाता है, जो दक्षिण की तरफ मुड़ती हुई 24 किलोमीटर संकरी होकर समुद्र तट से जा मिलती है। डांग क्षेत्र 1,500 से 2,000 फुट की ऊंचाई वाला क्षेत्र है। घनी वर्षा होने के कारण यह खूब हरा-भरा वन क्षेत्र है।
दक्षिण गुजरात क्षेत्र को अरब सागर के तटवर्ती होने का लाभ मिला है। यहां पर समुद्री मार्ग से आकर अनेक जातियां बसी हैं। भारत में मुस्लिम शासन स्थापित हुआ उससे पहले ही गुजरात में इस्लाम धर्मी बसे हुए थे। सोलंकी वंश के राजा सिद्धराज की एक ऐसी भी कथा मिलती है कि उनके राज्य के अंतर्गत खंबात में खतीब नाम के गरीब मुसलमान बसे हुए थे जिन्हें अग्निपूजक यानी पारसी और ब्राह्मण परेशान करते थे। अतः पारसी और ब्राह्मणों को सजा देकर सिद्धराज ने उनके साथ न्याय किया था।
गुजरात के समतल क्षेत्र में मुख्यतः मध्य गुजरात और उत्तर गुजरात के भू-भाग हैं। साबरमती, वात्रक, हाथमती, खारी, शेढ़ी, मेश्वो आदि इस क्षेत्र की मुख्य नदियां हैं। यहां का पटण नगर समग्र गुजरात की राजधानी का मुख्य केंद्र रहा है। सौराष्ट्र के जूनागढ़ के राजा रा’नघण के साथ सोलंकी वंश के राजा सिद्धराज का संघर्ष हुआ था। लोक कथा के अनुसार रानी राणक के लिए सिद्धराज और रा’खेंगार के बीच युद्ध हुआ और राणक भोगावो नदी के पास सती हो गई। सिद्धराज के साथ जसमा ओडण और बाबरा भूत की कथाएं भी जुड़ी हुई हैं। कंकाली, चामुंडा, और बावन वीर आदि की कथाएं भी जुड़ी हुई हैं। मूल कथाओं का जो रूपांतरण हुआ है, वह ऐसा प्रतीत होता है कि भाट, चारण और बारोट जैसे पेशेवर गायकों ने किया है। ये पेशेवर गायक यदि किसी राजा से अप्रसन्न हो जाते थे तो उसे बदनाम करने के लिए या उसके दुश्मन को खुश करने के लिए ऐसी कथाएं गढ़ लिया करते थे।
इसके लिए वे किसी पुरानी कथा के दो पात्रों के नाम बदलकर और अनेक संदर्भों के ऐतिहासिक होने का आभास देते हुए, कथाओं का रूपांतरण कर दिया करते थे। सिद्धराज जूनागढ़ के राजा रा’नवघण का समकालीन था, लेकिन रा’खेंगार तो उस समय मात्र बारह वर्ष का था ! बारह वर्ष के बालक के साथ कैसा युद्ध ? इससे स्पष्ट होता है कि रणक-रा’खेंगार और सिद्धराज की कथा सोरठ-वीसू की प्रेमकथा में हेरफेर करके गढ़ी गई है। इसी प्रकार संभव है कि जसमा ओडण की कथा के साथ भी ऐसा ही हुआ हो। लेकिन यह सुनिश्चित है कि गुजरात ने सोलंकी काल में ही स्वर्णयुग का अनुभव किया था। उसकी कलाओं का विकास हुआ था और इसी काल में कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र ने ‘द्वायाश्रय’ जैसे महाकाव्य तथा ‘सिद्धहैम’ नाम के व्याकरण की रचना की थी। सिद्धराज ने जब मालवा को विजय किया तो वह वहां से अनेक विद्याओं की हस्तलिखित पांडुलिपियां ले आया और उन पांडुलिपियों की अनेक प्रतिलिपियां, पटण में कायस्थ लहियाओं को रोककर उनसे कराईं और उन प्रतिलिपियों को गुजरात के विविध नगरों के ग्रंथ भंडारों को भेजा।
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